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हड़प्पावासी और आर्य भिन्न थे? अध्ययनों से मिलता है नया ज्ञान


साल 2010 के बाद से प्राचीनकाल के डीएनए (DNA) पर किए गए अध्ययनों से अतीत के बारे में हमारा ज्ञान बदल रहा है। अब हमें पता चल रहा है कि हड़प्पावासियों में आर्यों के वंशाणु नहीं थे। लेकिन आर्यों के (पुरुष Y-chromosome) वंशाणु भारत की लगभग 30 प्रतिशत आबादी में पाए जाते हैं। इसका एक अर्थ यह हो सकता है कि आर्य हड़प्पा सभ्यता के शहरों के पतन के बाद भारत आए थे। आर्य पुरुष सदियों तक आते रहे और हड़प्पाई महिलाओं से विवाह करते गए। या ऐसे कह लें कि आर्य पुरुषों ने उन महिलाओं से विवाह किया जिनके पूर्वजों ने हड़प्पाई शहरों का निर्माण किया और जो हड़प्पाई प्रथाओं का पालन करते थे। हड़प्पावासी और आर्य भिन्न थे। हड़प्पा के लोग शवों को दफ़नाते थे, जबकि आर्य उनका दाह-संस्कार करते थे। हड़प्पावासी घोड़ों द्वारा खींचे गए और तीली वाले पहियों के रथों का उपयोग नहीं करते थे, ऐसा इसलिए कि जब उनकी सभ्यता पनप रही थी, तब इन रथों का आविष्कार ही नहीं हुआ था। इन रथों का आविष्कार मध्य एशिया में लगभग 4,000 वर्ष पहले हुआ था और युद्ध में उनका उपयोग केवल 3,500 वर्ष पहले हुआ था। यह हड़प्पा के शहरों के पतन के बहुत बाद हुआ था। आर्य ये रथ भारत ले आए। उनके साथ एक नई भाषा भी आई जो बाद में संस्कृत के रूप में विकसित हुई। विश्वभर की आर्य भाषाओं में से केवल भारतीय आर्य भाषाओं में मूर्धन्य ध्वनियां (ट, ठ, ड) पाई जाती हैं। इस प्रकार, यह वैदिक भाषा भारत में बहुत विकसित हुई। यह इसलिए कि हड़प्पाई माताओं और आर्य पिताओं की संतानों ने इस भाषा में ही संवाद किया। दक्षिण एशिया के लोगों के अतिरिक्त मूर्धन्य ध्वनियां केवल पापुआ न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया के जनजातीय समाजों में पाई जाती हैं। इस समझ के साथ ऋग्वेद पढ़ने पर हमें पता चलता है कि उसके स्तोत्र खानाबदोश आर्यों, स्थानीय हड़प्पावासियों और उनकी संतानों की यादों से बने हुए हैं। ये लोग क्रमशः गंगा के मैदानी इलाकों तक बढ़ते गए। वृत्र, वल, दास, दस्यु, पणि और शम्बर जैसे प्राणियों को हराकर प्रकाश व गायों को उनसे मुक्त करने वाले, रथ पर सवार इंद्रदेव का उल्लेख आर्यों की यादों से आता है। आर्य, जो हिमालयों के उत्तर से आए (लोकमान्य तिलक मानते हैं कि वे आर्कटिक क्षेत्र से आए), समय को देवयान और पितृयान में विभाजित करते थे और जो ग्रीष्म-ऋतु और शीत-ऋतु के संकेतक हैं। हड़प्पावासी, जो हिमालय के दक्षिण-पूर्व में रहते थे, समय को तीन भागों में विभाजित करते थे। उनका वर्ष चातुर्मास और वर्षा-ऋतु पर आधारित था। वेदों में इन दोनों बातों का उल्लेख है। इस प्रकार वेदों में आर्य पिताओं और हड़प्पाई माताओं, दोनों की स्मृतियां पाई जाती हैं। आर्य आबादी ईरान में भी थी। वहां के अवेस्ता नामक ग्रंथ में इंद्र सहित अन्य देवों को बुरा और वरुण के समान अहुरा मज़्दा को परोपकारी माना जाता है। इससे यह बात स्पष्ट है कि ईरान और भारत में विरोधी आर्य जातियां बसीं। अवेस्ता और ऋग्वेद दोनों में अग्नि, यज्ञ (ईरान में यस्न) और सोमरस (ईरान में होम) का उल्लेख है। ईरानी आर्यों ने मृतकों का दाह-संस्कार करने से इनकार किया, क्योंकि वे मानते थे कि पवित्र अग्नि को दूषित नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए हड़प्पावासियों के विपरीत, जो शवों को दफ़नाते थे, ईरानी आर्य शवों को तत्वों पर छोड़ देते थे। भारतीय आर्यों ने दाह-संस्कार करना चुना, जिससे शव पवित्र हों और आत्मा को भी मुक्ति मिल सके। वेदों में हड़प्पावासियों के दफ़न से अधिक आर्यों के दाह-संस्कार पर स्तोत्र मिलते हैं। उनमें सरस्वती नामक विशाल नदी पर भी स्तोत्र हैं, जो अंत में सूख जाती है। क्या यह आर्यों की अफ़ग़ानिस्तान में स्थित नदी थी या ऐसी नदी थी जिसके किनारों पर हड़प्पावासियों ने शहर बसाए? विद्वान इसको लेकर एकमत नहीं हैं। आकाश में पूर्व की ओर कृत्तिका नक्षत्र और उत्तर की ओर सप्तऋषि नक्षत्र के उल्लेख वेदों में हैं। यह उल्लेख हड़प्पाई खगोल विद्या के साथ अधिक संरेखित लगते हैं, क्योंकि 2,000 ईस्वी पूर्व में वो शहर उत्तर और पूर्व दिशा की ओर स्थित था। ऋग्वेद की मायथोलॉजी में आगे जाकर बड़ा परिवर्तन हुआ। पहले ब्राह्मणों में (ब्राह्मण ग्रंथ) और फिर उपनिषदों में, जहां वह पहचान के बाहर चली गई। इसके बाद उसने पुराणों का रूप लिया जहां विष्णु, शिव और देवी के बारे में विस्तार से बताया गया है।

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