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भुखी माता मंदिर


 क्षिप्रा तट पर बना भुखी माता मंदिर विक्रमकालीन है । मुख्य रूप से मंदिर में दो देवियाँ विराजमान है दोनों ही माता आपस में बहने मानी जाती है । एक माता को भूखी माता व दूसरी को धूमावती माता के नाम से जाना जाता है । इस मंदिर को भुवनेश्वरी भूखी माता मंदिर भी कहा जाता है । मंदिर में आज भी पशु बलि देने की प्रथा है हालाँकि यहाँ आकर शाकाहारी भोजन अपने हाथ से बनाने और फिर माता को भोग लगाने पर देवी ज्यादा प्रसन्न होती है । नवरात्रि में अष्टमी को होने वाली नगर पूजा के दौरान मंदिर में मदिरा की धार लगाते हुए माता को मदिरा का भोग लगाया जाता है मंदिर परिसर में दो दीपस्तंभ स्थापित है । जिनपर नवरात्रि के दौरान दीप प्रज्वलित किये जाते है ।

इस मंदिर से राजा विक्रमादित्य के राजा बनने की किंवदंती जुड़ी हुई है। मान्यता है कि भूखी माता को प्रतिदिन एक युवक की बलि दी जाती थी। तब जवान लड़के को उज्जैन का राजा घोषित किया जाता था, उसके बाद भूखी माता उसे खा जाती थी। एक दुखी मां का विलाप देख नौजवान विक्रमादित्य ने उसे वचन दिया कि उसके बेटे की जगह वह नगर का राजा और भूखी माता का भोग बनेगा।

राजा बनते ही विक्रमादित्य ने पूरे शहर को सुगंधित भोजन से सजाने का आदेश दिया। जगह-जगह छप्पन भोज सजा दिए गए। भूखी माता की भूख विक्रमादित्य को अपना आहार बनाने से पहले ही खत्म हो गई और उन्होंने विक्रमादित्य को प्रजापालक चक्रवर्ती सम्राट होने का आशीर्वाद दिया। तब विक्रमादित्य ने उनके सम्मान में इस मंदिर का निर्माण करवाया।

यहां के पुजारी अमरसिंह पिता बंसीलाल मालवीय ने कहा कि कई माताओं में से एक नरबलि की शौकिन थी। राजा विक्रमादित्य ने इस समस्या के निदान के लिए देवी को वचन में लेकर नदी पार उनके मंदिर की स्थापना की। वचन में उन्होंने सभी देवी शक्तियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। कई तरह के पकवान और मिष्ठान बनाकर विक्रमादित्य ने एक भोजशाला में सजाकर रखवा दिए। तब एक तखत पर एक मेवा-मिष्ठान्न का मानव पुतला बनाकर लेटा दिया और खुद तखत के ‍नीचे छिप गए।

रात्रि में सभी देवियां उनके उस भोजन से खुश और तृप्त हो गईं। देवियां आपस में बातें करने लगीं कि यह राजा ऐसे ही हमें आमंत्रित करता रहा तो अच्छा रहेगा। जब सभी जाने लगीं तब एक देवी को जिज्ञासा हुई कि तखत पर कौन-सी चीज है जिसे छिपाकर रखा गया है।

अन्य देवियों ने कहा कि जाने दो, कुछ भी हो हमें क्या, हम तो तृप्त हो गए हैं चलते हैं, लेकिन वह देवी नहीं मानी और तखत पर रखे उस पुतले को तोड़कर खा लिया। खुश होकर देवी ने कहा- किसने रखा यह इतना स्वादिष्ट भोजन। तब विक्रमादित्य तखत के नीचे से निकलकर सामने आ गए और उन्होंने कहा कि मैंने रखा है।

देवी ने कहा कि- मांग लो वचन, क्या मांगना है। विक्रमादित्य ने कहा कि- माता से मैं यह वचन मांगता हूं कि कृपा करके आप नदी के उस पार ही विराजमान रहें, कभी नगर में न आएं। देवी ने राजा की चतुराई पर अचरज जाहिर किया और कहा कि ठीक है, तुम्हारे वचन का पालन होगा। सभी अन्य देवियों ने इस घटना पर उक्त देवी का नाम भूखी माता रख दिया।

 

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