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मालवा से शुरू हुई कंडों की होली प्रदेश भर में फैलने की जरूरत


संदीप कुलश्रेष्ठ

मालवा के उज्जैन और इंदौर ने एक ऐतिहासिक शुरूआत की है। सामाजिक सरोकार से जुड़ी इस अनुपम पहल में इंदौर वासियों ने गतवर्ष कंडों की होली जलाकर एक नई शुरूआत की थी। इस वर्ष भी और व्यापक पैमाने पर इंदौर के मोहल्ले मोहल्ले में कंडे की होली जलाने का प्रण लिया गया है। होली के दौरान गत वर्ष कंडों की बिक्री से इंदौर के आस पास की 60 गौशालाओं की लगभग 6 हजार गायों का साल भर का खर्च निकल आया था।
पर्यावरण संरक्षण -
               मध्यप्रदेश - छत्तीसगढ़ के पाँच बड़े शहरों  भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर, रायपुर और इंदौर में लगभग 411 टन लकड़ियाँ जलने से और लगभग 35 हजार किलो कार्बन भी हवा में घुलने से बच गया था। गौशालाओं से 14 लाख कंडे बिके । इससे 2 करोड़ 75 लाख रूपये की आमदनी हुई। इस अभिनव पहल को मध्यप्रदेश सरकार के पशुपालन और गौसंवर्धन बोर्ड ने भी अपना समर्थन भी दे दिया है।
एक दिन में दो करोड़ रूपये -
                इंदौर के 50 व्यापारियों और कारोबारियों ने एक फार्मूला तैयार किया गया है। इसके तहत एक कंडे का मूल्य 10 रूपये लगाया गया है। दो रूपये कंडे बेचने वाले और दो रूपये परिवहन का निकाल दें तो गौशालाओं के हिस्से में छह रूपये एक कंडे के प्राप्त होते हैं।  सामान्यतः एक बड़े शहर में 400-500 होली का दहन किया जाता है। यदि कंडां की इस होली में 20 लाख कंडों की खपत हो तो एक दिन में गौशालाओं को दो करोड़ रूपये की राशि मिल सकती है।

प्रदेश में 1296 गौशालाएँ और डेढ़ लाख गायें -
               मध्यप्रदेश गौपालन और संवर्धन बोर्ड के अनुसार कंडों की होली का एक सीधा गणित है । इंदौर ने एक नई पहल आरंभ कर दूसरों को प्रेरणा दी है। इसको प्रदेशभर में यदि अपनाया जाए तो वह आश्चर्यजनक लाभ देखने को मिलेगा। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश में 1296 गौशालाएँ रजिस्टर्ड है। इनमें से अनुदान प्राप्त 604 गौशालाओं में डेढ़ लाख गायें है। एक गाय रोजाना लगभग 10 किलो गोबर देती है। अर्थात पूरे प्रदेश में रोजाना 15 लाख किलों गोबर निकलता है। दस किलों गोबर से 5 कंडें बनाए जा सकते हैं। यानी प्रदेश में रोजाना साढ़े सात लाख कंडे बन सकते हैं। यदि एक कंडा 10 रूपये में बिकता है तो गौशालाओं को रोजाना 75 लाख रूपये की आय हो सकती है। इसमें बायोगैस और गोबर खाद को शामिल नहीं किया गया है।
पर्यावरण और पशुधन संरक्षण -
                   कंडां की होली से जहांँ पर्यावरण सरंक्षण होता है , वहीं पशुधन की भी सुरक्षा होती है। लकड़ी की तुलना में कंडां की होली पर्यावरण हितैषी होती है। इससे हरे भरे पेड भी बचते हैं और पशुधन का भी संरक्षण हांता है। अब समय आ गया है कि आम जन को भी पर्यावरण संरक्षण की दिशा में कंडों की होली जलाकर आगे आना चाहिए ।
घटिया जैसे गांवों में भी कंडें की होली जलेगी -
                  उज्जैन जिले के घटिया में भी कंडे की होली जलाने की पहल पहुंच गई है। गत दिवस थाना परिसर में हुई शांति समिति की बैठक में सर्वानुमति से यह निर्णय लिया गया कि घटिया में तो कंडां की होली जलेगी ही , इसके साथ ही आस पास के गांवों में भी कंडे की होली जलाने के लिए लोग पहल करेंगे।
उज्जैन के सिंहपुरी में अनेक दशकों से जल रही है कंडों की होली -
                उल्लेखनीय है कि महाकाल की नगरी उज्जैन में एक ब्राह्मण मोहल्ला है सिंहपुरी। इस मोहल्ले में अनेक दशकों से कंडों की होली जल रही हैं । इस होली की खासियत यह है कि इस होली में कंडां के अलावा और कुछ नहीं रखा जाता है। इस होली में हजारों कंडे रखकर भव्य स्तर पर होली जलाई जाती है। इस होली को देखने के लिए उज्जैन भर से सैकड़ों नागरिक आते है। एक तरह से कहा जाए तो दशकों पूर्व सिंहपुरी ने पर्यावरण संरक्षण और गौसंरक्षण की दिशा में अपनी मिसाल कायम कर रखी है। अब इसे प्रदेशभर में फैलाने की जरूरत है।
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